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Tuesday, 29 August 2017

मैं फिर निकली हूँ




जो सो गया है
उसे जगाने मैं फिर निकली हूँ

जो रूठ गया है
उसे मनाने मैं फिर निकली हूँ

जो बिख़र गया है
उसे सजाने मैं फिर निकली हूँ

जो छलक गया है
उसे छिपाने मैं फिर निकली हूँ

जो बहक गया है
उसे घर लाने मैं फिर निकली हूँ

जो खो गया है
उसे तलाशने मैं फिर निकली हूँ

जो सहम गया है
उसे ढाँढस बँधाने मैं फिर निकली हूँ

भीतर जो मृत-सा हो गया है
उसे जीने के कायदे बतलाने मैं फिर निकली हूँ

जलाकर उमंग का नया दीप
अंतर्मन का अँधेरा मिटाने मैं फिर निकली हूँ

हौंसलों को मन में लिए
ज़िन्दगी को आज़माने मैं फिर निकली हूँ

ख़ामोश हो गयी इस कलम को
एहसासों की जुबां देने मैं एक बार फिर निकली हूँ!

Saturday, 26 August 2017

कभी सोचती हूँ ..

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कभी सोचती हूँ..

क्या इस रोटी की भी कोई जाति होगी

फिर ख्याल आता नहीं

रोटी तो एक समान सबकी भूख मिटाती है


कभी सोचती हूँ ..

क्या इस हवा का भी कोई धर्म होगा

फिर ख्याल आता नहीं

हवा तो बिन फर्क किये सबकी सांसों में समाती है


कभी सोचती हूँ ..

क्या इस पानी का भी कोई मज़हब होगा

फिर ख्याल आता नहीं

पानी तो बिन भेदभाव किये सबकी प्यास बुझाता है


कभी सोचती हूँ ..

क्या ये उम्मीद भी किसी देवता को पूजती होगी

फिर ख्याल आता नहीं

उम्मीद तो सबके मन में एक- सी आशा की लौ जलाती है


बस फिर एक प्रश्न मन में उठता है

जब जीवन की ये बुनयादी आवश्यकतायें

इन्सान की जाती धर्म की परवाह नहीं करती

तो खुद इन्सान ही इन्सान को क्यूँ बांटता है

क्यूँ अलग अलग मज़हब से एक दुसरे को पहचानता है?

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