कभी सोचती हूँ..
क्या इस रोटी की भी कोई जाति होगी
फिर ख्याल आता नहीं
रोटी तो एक समान सबकी भूख मिटाती है
कभी सोचती हूँ ..
क्या इस हवा का भी कोई धर्म होगा
फिर ख्याल आता नहीं
हवा तो बिन फर्क किये सबकी सांसों में समाती है
कभी सोचती हूँ ..
क्या इस पानी का भी कोई मज़हब होगा
फिर ख्याल आता नहीं
पानी तो बिन भेदभाव किये सबकी प्यास बुझाता है
कभी सोचती हूँ ..
क्या ये उम्मीद भी किसी देवता को पूजती होगी
फिर ख्याल आता नहीं
उम्मीद तो सबके मन में एक- सी आशा की लौ जलाती है
बस फिर एक प्रश्न मन में उठता है
जब जीवन की ये बुनयादी आवश्यकतायें
इन्सान की जाती धर्म की परवाह नहीं करती
तो खुद इन्सान ही इन्सान को क्यूँ बांटता है
क्यूँ अलग अलग मज़हब से एक दुसरे को पहचानता है?
©vibespositiveonly

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