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Tuesday, 29 August 2017

मैं फिर निकली हूँ




जो सो गया है
उसे जगाने मैं फिर निकली हूँ

जो रूठ गया है
उसे मनाने मैं फिर निकली हूँ

जो बिख़र गया है
उसे सजाने मैं फिर निकली हूँ

जो छलक गया है
उसे छिपाने मैं फिर निकली हूँ

जो बहक गया है
उसे घर लाने मैं फिर निकली हूँ

जो खो गया है
उसे तलाशने मैं फिर निकली हूँ

जो सहम गया है
उसे ढाँढस बँधाने मैं फिर निकली हूँ

भीतर जो मृत-सा हो गया है
उसे जीने के कायदे बतलाने मैं फिर निकली हूँ

जलाकर उमंग का नया दीप
अंतर्मन का अँधेरा मिटाने मैं फिर निकली हूँ

हौंसलों को मन में लिए
ज़िन्दगी को आज़माने मैं फिर निकली हूँ

ख़ामोश हो गयी इस कलम को
एहसासों की जुबां देने मैं एक बार फिर निकली हूँ!

2 comments:

  1. Bhut hi achee andaz mei likhi hai!
    positive energy milti hai aisi kavitaon se
    https://thinkerball.wordpress.com/

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