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Friday, 13 April 2018

एक तलाश "खुद" की


इक सफर 
ऐसा भी तय हो
मंज़िल जिसकी तुम,
तुम ही रहगुज़र हो
खुद से भटक कर 
जहाँ पहुँच खुद तक जाना हो 
खोकर खुद को
खुद ही को पाना हो
समाज ये खोखला
खोखलें इसके कायदे है
झूठी है हर रीत
झूठे इसके सब वायदे है 
तो उतार फेंको 
ढकोसलों का ये चोला
निकल पड़ो घर से 
लेकर अपने अस्तित्व का झोला
ये बेड़ियाँ तुमको जकड़ेंगी
आगे बढ़कर पकड़ेंगी
लहरें रुख़ तुम्हारा मोड़ेंगी
संभव है तुमको झकझोरेंगी
कश्ती अपनी तुमको 
जो पार है लगाना 
तो बन पतवार साहिल तक
खुद को है पहुँचाना 
उजाले की प्यास में कब तक 
जुगनू के पीछे भागा जाए
क्यूं न अपनी हथेली 
पर ही सूरज उगाया जाए
अंतर्मन के नभ में
बेधड़क उड़ जाना हो
ऐसा भी जीवन में 
पल कोई मनमाना हो
इक बाज़ी 
खेल में ऐसी भी हो
हराकर खुद को
जीत "खुद" को जाना हो||
©vibespositiveonly

10 comments:

  1. वाह अनुपम भावों का सुंदर संगम।
    सारगर्भित रचना।
    जमाने का क्या वो तो हर बात पे रुसवा करता है
    अपने लिये जी ले हरबार क्यों औरों के लिए मरता है

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    1. आपकी तहदिल से आभारी हूँ:)

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  2. बहुत सारगर्भित रचना, जीवन को नए दिगंत की ओर मोड़ती हुई - - एक सुन्दर प्रवाह के साथ आगे बढ़ती हुई। शुभकामनाओं सह।

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  3. वाह !!!बहुत सार्थक रचना। लाजवाब भाव।

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    1. आभारी हूँ आपको रचना पसंद आयी :)

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  4. बेहद खूबसूरत ख़्यालों से सराबोर अशआर
    बेहतरीन रचना

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    1. तहदिल से शुक्रिया सर :)

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  5. हराकर खुद को...जीत 'खुद' को जाना है... बहुत ही खूबसूरत ❤����

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