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Thursday 29 June 2017

"पिता"


इस मतलब की दुनिया में
एक निस्वार्थी मैंने देखा है
खुद कड़ी धुप में तपकर
ठंडी छाया देने वाला मैंने देखा है
तमाम जिमेदारियों को हँसकर निभाता
एक मज़बूत काँधे वाला मैंने देखा है
सबका पेट भरने के लिए
खुद पेट काट कर सोने वाला मैंने देखा है
रात बे रात अपनी नींद उड़ाकर
नरम आलिंगन में चैन से सुलाने वाला मैंने देखा है
अपनी सब इच्छाएं स्वाहा करके
सबके नखरे नाजों से उठाने वाला मैंने देखा है
हर परेशानी संकट से अकेले ही भिड़ जाता
ऐसा रक्षक फौलादी सीने वाला मैंने देखा है
जीवन की सच्चाई से रूबरू करता
सही गलत का भेद बतलाने वाला मैंने देखा है
निराशा की घड़ी हो,चाहे  हार द्वारे खड़ी हो
पीठ थपथपा कर होंसला बढ़ाने वाला मैंने देखा है
कामयाबी के समय में,जीत के पलों में
माथा चूमकर शाबाशी देने वाला मैंने देखा है
सबकी झोली में उपहार हज़ार भरकर
खुद की जेबें खाली करने वाला मैंने देखा है
बच्चों का उज्जवल भविष्य सवारने के लिए
दिन रात एकतार एड़ी घिसने वाला मैंने देखा है
दुःख की पीड़ा अपनी आँखों में समेटकर
सबके आंसू पोछने वाला मैंने देखा है
अपनों की एक ख़ुशी के लिए ,इंसा तो इंसा
खुदा से भी लड़ जाने वाला मैंने देखा है
जज्बातों के सैलाब को पी कर
एकांत में सिसक कर रोने वाला मैंने देखा है
जिसकी अपनी कोई हँसी की वजह नहीं
सबकी  ख़ुशी में यूँही खिलखिलाने वाला मैंने देखा है
उसका अपना कुछ नहीं,सबकी चाहत में
हरदम खुद को लुटाने वाला मैंने देखा है
नकली इंसानों की इस दुनिया में
एक रूहानी फ़रिश्ता मैंने देखा है
हाँ , 'पिता' के रूप में
मैंने साक्षात् 'इश्वर' को देखा है ...





2 comments:

  1. वाह! बहुत अच्छी कविता है। भावों की सर्वांगीण आकृति को समेटे हुए। बधाई!!!

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  2. भावप्रवण हृदयस्पर्शी रचना. बधाई एवं शुभकामनायें.

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